ये सारी दुनिया अफसोस मे क्युं है?

  • Writer: Vishal Narayan
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  • 19 Oct 2021
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ये सारी दुनिया अफसोस मे क्युं है?



बंटी – गायतोंडे भाऊ, ये ईसा के लोग तो बड़े चंठ निकले यार। हमे तो कहीं का नही छोड़ा। खुद तो सेट कर लिया और अपन यहाँ पारले जी खा रेले काली चाय में डुबोके। भाऊ आपका खून कब खौलेगा। कुक्कू का, सुभद्रा का, पारितोष भाई का……इन सबका बदला कब लोगे?

ग़ायतोंडे – अबे चिलगोज़े, पहले बता ये ठरक क्या होता है?
बंटी – मालूम नही भाऊ। बाहर गांव से आया है क्या कोई? पता करवाता हूँ भाऊ। तुम्हाला त्रास देऊ नका।
ऐ छोकरा लोग चलो रे सारे। अभी मालूम करता है।कौन नवा सांड़ा आया है कैलाशपाड़ा में।
गायतोंडे – अबे पागल है क्या? तेरे से कुछ बोलना ही नही मांगता। पैदाइशी सूतिया है तू। हट्ट!

बंटी – काय झाले भाऊ, ऐसे काहे को बोलता है।
गायतोंडे – अपुन को लगता था कि मै भगवान है , लेकिन गुरु जी को लगता है की वो भगवान हैं। मेरे को भी लगता है।
सरताज को घंटा नही कुछ पता चलता है। बात्या को अपने बचपन का अफसोस है तो तेरे को अपनी टांगे जाने का अफसोस। ये सारी दुनिया अफसोस मे क्युं है?
भाऊ मेरे को ठीक से कुछ चमक नही रहा। ठीक से बताओ ना। बंटी।
गायतोंडे – मैं छुट्टी पर है कल से। कोई डिस्टर्ब नही मंगता। खुद से देखने का सब कुछ।
और हाँ बे , पारुलकर मिले तो उठा लेना। हिसाब लेना है।

बंटी – लेकिन भाऊ ये ठरक होता क्या है? बता दो।
गायतोंडे – ठरक वो होता है जो एक बार तेरे अंदर आ जाये तो अक्खी दुनिया ताजमहल छोड़कर तेरी खूबसूरती देखेगी। समझा?

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शाम के पांच बज चुके हैं



अपनी अपनी जिम्मेदारियां निभाकर सब लौट रहे हैं। मेट्रो खचाखच भरी है। तिनके भर की जगह नही बची है। सबकी नजरें स्मार्ट फोन के स्क्रीन पर ही है। कान मे हेडफोन और चेहरे पर बदलते भाव। कभी हंसते तो कभी बस मुस्कुरा भर देते। कोई बस खड़ा भर है नजरें झुकाये अपनी जिम्मेदारियों की सिसकियां भर सुन पा रहा है वो।
किसी का दिन अच्छा था तो कोई बॉस की खरी खोटी सुन कर आ रहा है इस बात से बिल्कुल अनजान की मिस्टर बॉस के भी सुप्रीम बॉस हैं। लाखों बोझ उठाती है ये मेट्रो दिन भर में मगर ये शाम वाले सारे सुस्त थके से लोग उसे पसंद आते होंगे क्या?
अपनी जंग नाईन टू फ़ाईव लड़ने वाले ये सिपाही दिन में कुछ और होते हैं और शाम को कुछ और। हार जीत अलग बात है मगर जिंदादिली का लाजमी सवाल तो है ही। कभी चाय मे इनकी जिंदगी बसती थी मगर अब कॉफी के प्यालों मे घुट रही है। कोल्ड कॉफी, हाट कॉफी और तरह तरह की वेराईटी। अपने आप की वेराईटी का क्या? कभी सोचा है ?
चलो कोई बात नही। संडे को अक्सर अपनी वही जिंदादिली याद आती है इन्हे। कॉफी नही चाय वाली।
ज़िन्दगी इतना दौड़ा देती है कि ये सुस्त पड़ जाते हैं इतने सुस्त कि दोस्त माँ बाप दोस्त यार प्यार सबकी कसक होते हुए भी दरकिनार कर अपनी भावनाए अपने सोसाइटी की सातवीं मंजिल के सो कॉल्ड आलिशान फ्लैट की खिडकियों पर देख “क्या खोया क्या पाया” की गुत्थियाँ सुलझाते हैं |
सिगरेट के कश में अब इनका मन नहीं लगता धुंआ आस पास से बराबर मिलता जो रहता है। रोजाना घर से घर कॉल आ ही जाती है कैसे हो तुम? बढ़िया….आप सब कैसे हैं? बहुत बढ़िया है सब यहाँ…बस तुझसे एक शिकायत है तू शादी के बारे कुछ क्यों नहीं सोचता
हम्म्म्म सोचता हूँ की औपचरिकता निभाते हुए फ़ोन रख देने का धर्म इनसे स्वंय पूर्ण हो जाता है| दोस्तों के आनलाईन स्टेटस से उनकी निज़ी ज़िंदगी की तरक्की देख मुस्कुराते हैं कभी कभार उसकी न्यूजफीड भी छान आया करते हैं जिससे कभी कुछ कह नहीं पाए थे|
मलाल इतने रह गए हैं जिंदगी में कि दुनियादारी के वेल सेटल्ड लाइफ के मुकाम की परिभाषा बदल सी गई है।
क्या जिंदगी ने सच में मौके नहीं दिए थे इन्हें?
क्या उस आलीशान फ्लैट की खिड़कियों पर अकेले ही खड़ा होना था इन्हें?
क्या जो दोस्त सिर्फ चाय पीने दस किलोमीटर दूर तक आ जाया करते थे वो अब कुछ सौ किलोमीटर्स की दूरी नहीं तय करेंगे?
क्या इन्हें उसे एक बार भी बताने की कोशिश नहीं करनी चाहिए थी?
कितने सारे सवाल है उन सवालों के जवाब में कुछ और सवाल हाजिर जवाब हुए बैठे हैं।
कब तक पता नहीं! वैसे शाम के पांच बज चुके हैं।

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उम्मीदों वाली बात



शिकायतें बार बार करने पर भी जब कोई नही सुनता तब तकलीफ होती है। गैर जरुरी बात नही होती है किसी की उम्मीद टूटने की कहानी। उसे सुन लेना चाहिये। मगर जब इन बातों को लगातार बोलने पर भी कोई नही सुनता तब मौन हावी हो जाता है। अथाह दर्द के उस समंदर मे गोते लगाती आत्मा दुहाई देती है रहम की।
ज़रा गौर से सोचो तो पता चलेगा की हर मुकम्मल इंसान कहीं ना कहीं से बिखर रहा है। समेट पाता है या नही लेकिन अभिनय जरुर करता है। हंसता है, जोक सुनाता है, जी लेता है जिंदगी एक तरह से।क्या ऐसा तुम्हारे साथ भी होता है?
मन झुंझला जाता है। क्युं नही एक बार पूरी किताब हाँथ लग जाती। अपनी जिंदगी पूरी पता कर पाते लोग एक्मुश्त। यूं तो किश्तों मे पूरी कहानी सोच लेते हैं सोचने वाले मगर कहाँ पता चल पाता है सब कुछ।
वो मुलाकात जिसके सपने बुन रखे हैं पूरी होगी या नही?
क्या हम हासिल कर सकेंगे सुकून और मुकाम एक साथ?
ये जो शोर शराबा है फालतु का वो कभी थमेगा क्या?
दर बदर भटकती हैं असंख्य कहानियां उम्मीद के किनारों पर इसी तरह मौन, अपने अस्तित्व के इंतजार मे।

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आधा अधूरा



समुन्दर के किनारे ख्वाबों का एक छोटा-सा घर !
वहां की रेत से बनी ढेर सारी यादों की तस्वीरें , मालूम तो था ही कुछ कमी है उस ठहरे हुए वक्त में , जानबूझ कर अनदेखा करता रहा क्योंकि ज़ोर तो था नहीं !!
लालसा ,जब विवेक के भ्रमित राहों के चक्रव्यूह में गिरता संभलता तो बंजर सा ख्याल ,अजन्मे बच्चे की तरह दस्तक दे जाता ।
अजीब से इस ज़हान की अजीब अजीब सी दस्तूर ।
रिती रिवाज़ के दहलीज पर खड़े ख़ामोश ख्वाहिशों कि कतारें।भीड़ भाड़ से परे उनकी अटकी सांसें ।
तेज दौड़ती-भागती जिंदगी में सच्चाई न बयां कर पाने की तकलीफ़ ।तीव्र भावनाओं पर धारदार औजार का प्रहार । एक रास्ता जो तुमसे होकर मुझ तक पहुंची हमेशा
उस रास्ते पर चलना आज भी मुझे अच्छा लगता
असर तो खूब हुआ था तुम्हारे संग वीरानी शैर की हवाओं में ।नाता जो खत्म हुआ मीठा जहर भाने सा लगा इस जीवन में ।जिन्दगी जीने का मजा ही तब है जब सारी उसे मिटाने पर तुली हो ।तुमसे ही तो सिखा है झूठी मुस्कान बिखेरना पुरी शिद्दत से ,ताकी सबकी निगाहें एक हंसती हुई तस्वीर ही देखें। दर्द सबसे छिप कर किसी कोने में खारे बादलों में तब्दील जाएं ।तुमने मुझे कुछ खुबियों से अवगत कराया जिनसे मैं अंजान ही रह जाता,गर तुम शामिल ना होती मुझमें। मैं तो खुफिया नज़र रखते हुए दिल को निरंतर तुम्हें भूल जाने के प्रयास में रम जाने को कहता हुं।
कहां भटकाती रहती हो मुझे , बेशक मन तुम्हारी चंचल मुस्कुराती हुई छवि से हार गया ।तुमसे मोहब्बत हो गई , जूर्म तो न था कोई किस गुनाह कि सज़ा दे गई ।
जब छोड़ कर जाना पक्का ही था तो इंसान क्यो बनाया, मैं तो जानवर था ही पर मैं खुश था ,बेहद खुश ।
ख़ामोश ज़ुबां तुम्हारे राग अलाप रहे ,सांसों में धड़कन निर्जिव सा पड़ा है ।
समझ से परे किस दिशा जाऊ , मोड़ ये कौन है ,कैसे परखुं कहा रूकूं ,किस मोड़ को अपना साथी समझूं ।
मिटी मिटी सी अश्कों से नैनों की धुली धुली ये पलकें है ।
तुम्हारा जख्मी तोहफा खुब भाता मुझे
मरहम पट्टी से घाव भरने के आसार कुछ खास न दिखे ।
बेइलाज वाला रोग तुमसे मुफ्त जो पा लिया मैंने ,,
कभी फुर्सत मिले तो बताना मुझे क्या अभी भी मेरी याद कहीं खटकती है ।
मैं तो चाह के भी पल भर के लिए भी नहीं भुला तुम्हें , गहराई जो थी उन नजदीकियों में ।
आईने की तरह साफ़ जो दिल था तुम्हारा
जाहिर है इरादे को तो बेईमान ही होना था, सच कहूं तो बहुत याद आती है तुम्हारी।
सच कहूं तो आज भी उस मीठे एहसास का चुभन जिंदा है।कहानी के हर पन्ने पर जिक्र तो तुम्हारा ही है।
क्यो मैं दूर हो कर भी खुद को बेहद करीब पाता तुम्हारे ।
कोई तो वजह होगी जो हम साथ चले बिना मतभेद हमसफ़र बनने की ख्वाहिश दम तोड़ती हुई बेफिक्र हो गई ।अब तुम किसी और की अमानत ,परम्पराओ से बंधी किसी खानदान की शोभा। और मैं वही बेफिक्र जान खैर अब शिकायतें करने में भी दिलचस्पी नहीं लेता मन, जिंदगी ग़ैर सी जान पड़ती है

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स्टेशन पर इज़हार



नींद से मेरी आंखे दुख रही हैं लेकिन मैं सो नहीं पा रही जबकि मेरे इर्द-गिर्द सारे लोग सो रहे हैं और तुम तो घोड़े बेच कर ही सोते हो चाहे कहीं भी रहो।
आधी रात को नींद की इस महामारी से सिर्फ मैं ही अछूती रह गई हूं शायद,
बाकी सब नींद के गहरे नशे में बेहोश पड़े हैं बेफिक्र बेपरवाह।
ज्यादातर लोग आदत के मारे बार-बार करवटें बदलते हैं तो कुछ लोग अपने इकलौते बैग को इतनी जोर से जकड़ कर सोते हैं मानो बैग नहीं जिंदगी जकड़ लिया हो।
खैर वो एक भ्रम है…
जो उन्होंने जकड़ रखा है वो बैग है क्योंकि हम जिंदगी जकड़ नहीं सकते हैं।
अजीब बेचैन सा रहता है स्टेशन का इंतजार… किसी को आने की जल्दी है, किसी की जल्दी जाने की है।
(लेकिन मैं जब भी आती हूं मेरे हिस्से इंतजार ही आता ना जाने कौनसी दुश्मनी है भारतीय रेल को मुझसे, हर बार गाड़ी नियत समय से 2 घंटे की देरी से चल रही होती है।)
सब की गहरी नींद खर्राटों वाली सुनते ही दिमाग का पारा चढ़ जाता मेरे, गुस्सा मुझे तुम पर भी आ रहा, मुझे बैठा कर खुद सो गए लेकिन तुम्हारी नींद से भरी आंखें बिल्कुल छोटे बच्चों सी लगती है। तुम्हें हमेशा शिकायत रहती है मेरे इज़हार ना करने पर, तुम्हें अंदाजा भी नहीं कितना मुश्किल होता है मेरे लिए इज़हार ना करना।
सुनो बे तुम से बेहिसाब इश्क है लेकिन हम इज़हार नहीं करेंगे। अब तुम्हारी आदत थोड़े ही खराब करनी है अच्छा लगता है मुझे, जब तुम बच्चों जैसे जिद करते हो कुछ शब्द सुनने के लिए। तुम्हारी जिद पर मेरा बार-बार रूठना और तुम्हारा मना लेना ही मेरा इज़हार है।
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(सचिन रिया से अंगड़ाई लेते हुए)
यार वक्त क्या हो गया?… मैं तो सो ही गया था।
हां तो तुम्हें आता भी क्या है?
यार तुम गुस्सा मत हो वैसे मैंने एक बहुत अच्छा सपना देखा जिसमें मैं और तुम थे!
तुम बस सपने ही देखो मुझे बहुत गुस्सा आ रहा है भूख लगी है प्यास लग गई और इन मच्छरों का तो क्या ही करूं मैं!
अच्छा बाबा थोड़ी देर की ही बात है! तुम चाय लोगी? मैं चाय लेकर आता हूं तुम्हारे लिए! और हां मैं सोया नहीं था और वो सपना भी नहीं था, और तुम लगातार बड़बड़ा रही थी।
तो क्या करूं मैं!
कुछ नहीं करो….
मैंने कुछ नहीं सुना….
मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं और करता रहूंगा!
ठीक है अब जाओ भी और जल्दी आना।

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किरदार, कहानी और उपन्यास



मैं खुद अपनी ही तलाश से थक गई हूं
और फिर तुम आते हो मेरी दुनिया को छेड़ कर चले जाते हो।
दुनिया में पुरुषों की कई किस्में होती है
लेकिन हम महिलाओं की एक ही किस्म होती है
जब हमें कोई देखता है तब प्रॉब्लम होती है,
और जब नहीं देखता है प्रॉब्लम तब भी होती है।
अब मैंने भी तय कर लिया है मैं भी तुम्हें देख कर अनदेखा कर दूंगी तब पता चलेगा किसी का अनदेखा करना क्या होता है।
नहीं नहीं मैं गुस्सा नहीं हूं
बस मुझे हिसाब बराबर करना है।
तुम्हारे अनदेखा करने की वजह से जब भी लैपटॉप ऑन करती, तो डेस्कटॉप पर मेरा उपन्यास मुझसे, किस्से मांगता मेरे इर्द-गिर्द शब्दों का बवंडर कहानी को कहीं दूर ले जाना चाहता।
कीबोर्ड पर उंगलियां लगातार चलती, फिर ठहर कर जहां से चलती, वापस वही पहुंच कर रुक जाती।
जब किरदार ही नहीं होगा कहानी कैसे पूरी होगी
मेरी कहानी तुम बिन अधूरी है वापस लौट आओ।
तुम्हारे किरदार को मैंने कहानी में
दो-चार रैपट जड़ रखे हैं।
मुझे तुमसे समझदारी की उम्मीद है जल्दी लौट आना।

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फ्रेंड रिक्वेस्ट आई है



कभी-कभी यादें मन की गहरी भावनाओं के धुंध में और कड़वाहट भर देती है बावजूद इसके वही यादें छटाक भर खुशी दे जाती हैं। जैसे:
तुमसे मिलना,
वो कुछ दिन की मुलाकात अपनापन में बदल जाना,
तुम्हें मेरी परवाह है तुम्हारा ये महसूस करवाना,
सड़क पार करते समय मेरी उंगली पकड़ लेना,
अनजाने में ही सही तुम मेरे लिए खूबसूरत सपना बन चुके थे,
किताबों और कोरे दरख़्तों की दुनिया में
मैं उलझी जाने कब मैं तुम तक पहुंचने लगी।
चाहत का रिश्ता बेमौसम खिलने वाले फूलों की तरह होता है जो निरंतर खिलता रहता है हर मौसम में और बढ़ता भी रहता है।
मैं अभी भी नहीं भूली हूँ
जादू से भरा वह एक मूक क्षण, वह एक शान्त लम्हा
जब मेरी साँसों में अनायास ही ठहर गए थे तुम
मेरी आँखें आसमान पर जाकर ठहर गईं थीं और
जीवन की मधुरता और कड़वाहट से मिश्रित अलौकिक मदिरा भरा प्याला बन गई थी मैं।
उस वक्त मैं इजहार करना चाहती थी तुमसे,
शायद अच्छा ही हुआ कि गलत वक्त पर आ गई…..
.
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.
.
“अबे वो डरपोक चश्मिश क्लीन बोल्ड हो गई है
तेरे भाई के प्यार में,
उसने तो फेरों के भी सपने देख लिये होंगे।
देख भाई मैं शर्त जीत चुका हूं और कल मेरी फ्लाइट है
मैं उस चिपकू बहन जी से मिलना नहीं चाहता अगर उसने पूछा तुझसे तो बोल देना अपनी औकात के सपने देखें”
(बिल्कुल तुम्हारी भाषा यही थी)
ये वो आखिरी शब्द है जो तुमने मेरे लिए कहे थे।
यह सुनकर मैं बस मुस्कुराई थी क्योंकि तुमने कहा था मेरी मुस्कान बहुत अच्छी है मुझे मुस्कुराते रहना चाहिए, और सेहत के लिए भी अच्छा होता है। मैं मुस्कुराती रही आज भी मुस्कुरा रही हूं।
आज 6 साल बाद तुम्हारी #फ्रेंडरिक्वेस्ट….
खैर इतने सालों में मैं भूल नहीं सकी
पर मैंने किसी से पूछा ही नहीं था तुम्हारे बारे में।
शादी कर ली है तुमने!
पहले से अच्छे भी दिखने लगे हो!
और ये #Forever_love_wala_caption!
खुदा खैर करे कि इस बार तुम्हारी शर्त ना हो
ये प्यार बना रहे आजीवन।

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अरे प्रीती सुनो



ठरक एक यात्रा है और ठरकी होना एक सुखद एहसास। कतई आसान समझने की जरूरत नहीं है इसे,
प्रकट होने के बाद जब भी होश आये तबसे और वीरगति प्राप्त होने तक की कहानी है ये।
बात और है की ये मारक मजा बहुत कम ही ले पाते हैं। कितनों को तो पता ही नही चल पाता की ठरक उनमे लबालब भरा पड़ा वेस्ट हो रहा था, और इन जैसे प्राणियों के लिये ही सिनेमा काम करता है कैटलिस्ट की तरह। साइंस वाले कैटलिस्ट का मतलब जानते होंगे मगर बेगैरत आर्ट कामर्स वालों के लिये यही सलाह है की गूगल कर लो।
अब इतना तो कर ही लो अगर ठरक के बारे मे पढ़ के मजे ले रहे हो। फ्री में कितने मजे लोगे?
तो सिनेमा से याद आया की शहिद अंकल की जानलेवा पिच्चर आयी थी “कबीर सिंह” (फिलम सही है)। पूरा जनता पागल प्रेमी बनने का फील ले रहा है। चचा तो अपना काम धाम करके निकल लिये लेकिन अब इफेक्ट तो करोड़ो कबीर सिंह पर है। दारू गांजा वाले अलग मौज में हैं और अपने नसेड़ी भैया-बहिन (बूरा मत मानना यार) तो फुल कांफिडेंस मे फूंक पी रहे हैं।
लिवर और फेफड़ों की अलग मीटिंग चल रही है कि देखो अब ज्यादा दिन काम नही करना है। एक बार कोइ सिग्नल मिले बंद हो जाना काहे की कोई जरुरत नही है प्रीती बनने की।
तो भला प्रीती क्युं नही बनना है?
सवाल लाजमी है और जवाब कातिलाना।
जितनी भी तुम प्रीती लोग हो सब अपना मिथक तोड़ लो। अब जरा गौर से देखो की क्या तुमको सच मे वो दढ़ियल, मादक मदिरा से महकता हुआ बिना नहाया धोया हुआ अच्छा लगेगा?
नही यार, और अगर हाँ है तो दिमाग वाले डाक्टर से मिलो जल्दी बिना देरी के।
दरअसल ठरक तो वो भले मानूष को ही देखकर आता है जो सफेद शर्ट मे बुलेट पर बैठकर आता है। उसके आने पर ही गाना बजता है। दिल मे पंखा चलने लगता है। अरे तभी तो प्रीती बनकर सबसे लड़ जाने का मन करता है। सब कुछ खतम होकर एक नया सा कुछ शुरु हो जाता है। शास्त्रों मे इसे ही सच्चा ठरक माना गया है। अरे एकाध रैपट खाने खिलाने में भी हरज़ नही बस कोई कबीर राजवीर सिंह होना चाहिये।

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शुभ रात्रि



ठरक क्या है?
“ए मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना” आया से लेकर “मेरे सैंईया जी से आज मैंने ब्रेकअप कर लिया” तक का सफर…
नहीं…
नहीं…
यकीनन ठरक की परिभाषा बहुत है जैसे स्कूल की लड़कियां 20 पानी बताशे की शर्त को भी ठरक मान लेती हैं!
वही स्कूल के लड़के क्रिकेट के मैदान में सामने वाली टीम के लड़कों को जमकर कूटना भी ठरक मानते हैं!
शर्मा जी, वर्मा जी, दुबे जी, पांडे जी, तिवारी जी, मिश्रा जी और सब भी जो छूट रहे इन्हें तो ठरक…. ना मुन्ना ना ये लोग ठरक की परिभाषा भी नहीं जानते यह सारे लोग दिव्य पुरुष हैं एकदम जिम्मेदार!
और तिवारी जी के जाते ही तिवराइन पूरी महिला मंडली के साथ मजमा लगाती और सब की समस्याएं सुनी जाती हालांकि उन समस्याओं का समाधान न के बराबर होता
फिर भी यह प्रक्रिया रोज होती हैं और यह ठरक श्रेणी से कोसों दूर है!
(तिवारी जी वकील है तो तिवाराइन को वकालत का अच्छा तजुर्बा हो गया है शायद इसीलिए महिला मंडली अपनी बैठक यही लगाती है)
और हां ठरक 18 साल से 24 साल तक के बच्चे ही करते हैं 18 साल से कम के बच्चे पढ़ाई करते हैं, और 24 साल के बाद वाले बच्चे (मने बुजुर्ग) नौकरी करते हैं तो उठ पटांग ज्ञान (यहां न दें)और भ्रम दोनों ना पालें!
और हमारा क्या हम तो ठरक वाली उम्र में ही खड़ूस बन बैठे हैं माने बचपन से खड़ूस ही हैं हमारा कुछ नहीं हो सकता बाकी सब को शुभ रात्रि रहेगा!!!

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किताबें और अजीब सी लड़की



अजीब सी लड़की की अजीब अजीब सी ख्वाहिशें हैं। उसे सरपट दौड़ना है मिलो की दौड़,
उसे पसंद आती है नुक्कड़ वाली चाय,
नए कपड़ों की बजाय खरीद लाती है किताबें,
डर जाती है चूहे से भी और लड़ कर आती है इंसानी जानवरों से,
सड़कों पर चिल्लाना चाहती है और कसक मारती है आवाज भरे गले में,
लगाना है उसे भी सिगरेट का एक कश… नहीं नहीं उसे यह बदजात आदत नहीं चाहिए। उसे देखना है वो हवा में उछलने वाले गोल छल्ले,
मछलियों में रंग दिखता है उसे
बंदर उसे इंसानों से ज्यादा अच्छे लगते हैं।
(लॉजिक है भई हम सब पहले ऐसे ही थे)
संगीत वाले मास्टर जी सुर सिखाने आते थे
उन्हें अब कोई सुर नहीं आता।
अमां यार चकाचौंध है वो चकाचौंध…
कहीं तुम मत खो जाना।
दूर ही रहना हम कह रहे हैं!!!

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नोएडा से लाजपत नगर via शेअर बूकिंग



गाना सुनते सुनते कितनी बार ऐसा हुआ है आपके साथ जब जुबां केसरी वाला ऐड प्ले हो गया हो यूट्युब पर? लेकिन अगर वो भी अच्छा लगने लगा हो तो गजब हो गया आपके साथ। ठरक को मानने समझने वाले स्कूल मे आपका एडमिसन पक्का। आजकल मूड तुरंत खराब होता है और फिर तपाक से ठीक हो जाता है। स्टार प्लस की एकता दीदी से बात हो पाती तो शायद नौकरी मिल जाती। जिंदगी मे रायता फैलाने आ चुका है एकदम बढ़िया से। वो भी ठरक के छौंके के साथ। यही तो हिट फार्मूला है आजकल। देखो तुम लोग ठरक को बुरा भला मत बोलना हाँ जान लो। कितनों की रोजी रोटी चलती है इससे लेकिन मानता कोई नही। सब साले गद्दार हैं मथुरादास की तरह।
ओला और ऊबर की सवारी कर रहे वो सारे लोग जो कहने को पैसे बचाने के लिये शेअर बूकिंग करते हैं वो क्या बस पैसों के लिये ऐसा करते हैं? ऐसा नही है यार! यहीं तो ठरक वाले बाजी मार ले जाते हैं। अगला इसी सूतियापे मे रह जाये की कितना सोचता है ये मनी मैनेजमेंट को लेकर। अजी हंसी आती है बेचारी दुनिया पर। कौन सा पचीस पचास बचाकर हम अम्बानी को टक्कर देने लगेंगे। लेकिन ठरक की खुराक का क्या? उसके लिए तो जुगाड़ करना ही पड़ेगा न।
अब इस हसीन मौसम मे दूसरी पार्टी के सिमरन या नेहा निकल जाने का चांस तो होता ही है। और यही प्रॉबेबिलिटी नेहा और सिमरन के लिये भी एप्लिकेबल होती है। ठरक जेंडर देखकर थोड़े आता है। ठरक का क्या है ना कि ये अगर है तो है। कितना भी संस्कार चैनल देख लो इसका टोन वही रहेगा। अब यार ये बात अलग है की अब होती नही ठीक से मगर दिल्ली की बारिश मे मजा तो आता है। और सोचो की ऑफिस की जहर जानलेवा शिफ्ट करने के बाद उनके साथ सफर करने को मिल जाये जो साला हमारी ठरक से अनजान अपनी ठरक को छुपाये बैठा या बैठी हैं।
अब क्या है की नोएडा से लाजपत नगर जाने मे वक्त तो लगता ही है और उपर से ट्रैफिक की अलग चिल्लमपों। धीमी बारिश ट्रैफिक और दो (कभी कभी तीन भी। ड्राईवर साहब भी सेम बिरादरी के हों तो कतई गदर।) अंजान ठरकी किशोर कुमार की मेलोडी पर अपनी-अपनी कहानियां बुनते हुए चले जा रहे हैं। कुछ बातचीत अगर शुरु हो जाती है तो ठीक वरना अगली बार फिर कोशिश करेंगे। अरे जिंदगी है तो कभी ना कभी वो अपने जैसा लगने वाला बिल्कुल अपने जैसा सोचने वाला ठरकी मिल ही जायेगी या जायेगा।
सौ बात की बात ये है की ठरक नश्वर है और ये कभी खतम नही होगा। जिस तरह से रोकना हो रोक लो मगर ये तुम्हारे भीतर का तुम मार देगा। और फिर एकदिन हर बंधन तोड़्कर इसी के होकर रह जाओगे। समझ लो अच्छे से।

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हिसाब



जितना मुझे सुना रहे हो!
उतना सुनने की हिम्मत रखते हो ना
आज मुझे नाप तौल कर हिसाब करना है
तुम्हारा भूले भी एक भी शब्द उधार नहीं रखना
तैयार रहना बेवक्त पाने वाले तोहफे से मिलने के लिए!
.
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.
डर गए क्या तुम अमा यार
मैं कोई बात सीरियस नहीं लेती
तुमने ही तो बताया था मुझे
मैं भी मजाक कर रही थी
जाओ जिंदगी समाज की शर्तों पर गुजारो।
खैर एक बात याद रखने वाली है
मैं तुम पर खुद से भी ज्यादा भरोसा करती थी
थी का मतलब पता है ना!!!
याद रखना

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मेरी कहानी लिखोगी?



एक शख्स मिला है मुकबधिर सा।
मैं कहती रहती हूं, वो सुनता रहता है मेरे शब्द उसकी चुप्पी को तोड़ नहीं पाते और इशारों वाली भाषा मुझे आती नहीं।
यह जानते हुए कि तुम मुझसे मिलना नहीं चाहते हो मैं तुम्हारे एकांत में चली आई, यकीन था मना भी नहीं करोगे।
कुछ बोलो इससे पहले कि मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच जाए। यकीन मानो जिस दिन बोलोगे उस दिन, तुम्हारा दर्द, तुम्हारी आवाज से अलग होकर कहीं दूर चला जाएगा।
“कुछ दर्द हमसे दूर नहीं होते, दर्द से हम दूर रहते हैं”
(कुछ देर की खामोशी………….)
तुम मेरी कहानी लिखोगी क्या?
कैसी हो?
कॉफी मंगवाऊ या चाय?

तुम्हारी कहानी क्या, मैं तो तुम्हें ही लिखने आई हूं जान बल्कि पढ़ने आई हूं मैं बहुत अच्छी हूं
आज कोल्ड कॉफी लाओ रे कोई…
मेरी बसंती बोल पड़ी है आज!!!

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लास्ट कॉफी



:)-आज 4:00 बजे कॉफी शॉप पर मिल लेना मुझसे और देर बिल्कुल भी मत करना आज आखिरी कॉफी तुम निखिल के साथ पियोगी। :-क्यों आज के बाद कॉफी नहीं मिलेगी या तुम नहीं मिलोगे?

:)-नहीं-नहीं कॉफी मिलेगी मैं भी मिल लूंगा पर आज के बाद जब भी मिलूंगा मैं सीईओ निखिल बनकर मिलूंगा। फिर तो तुम्हें भी अपॉइंटमेंट लेनी पड़ेगी। :-हां बिल्कुल ठीक कहा मिलती हूं शाम को, वैसे आदतन तुम देर हो जाते हो। . . . .

:)-कॉफी कैसी है? (उसकी कॉफी की अंतिम सिप थी शायद!!!) :-अच्छी है हमारी “लास्ट कॉफी”

:)-लास्ट कॉफी हा हा हा अरे मैं मजाक कर रहा था। :-जानती हूं।

:)-तुम बताओ अब क्या करोगी मुझसे मिलने आओगी कभी। :-हां अगर अपॉइंटमेंट अप्रूव हुई…खैर आऊंगी भी तो तुम्हें कहा ढूंढ़ पाऊंगी। क्या तुम आओगे मुझसे मिलने?

:)-हां शायद लेकिन क्या तुम तब भी यहीं मिलोगी? :- शायद… शायद कह कर तुमने जवाब आसान कर दिया, शायद नहीं जानते हो न, जिंदगी बंजारों सी है।

:)-भटक कर कहीं दूर निकल जाओ, तो रुक कर पीछे देखना, जो पीछे छूट जाता है वह पीछे ही रह जाता है, आगे बढ़ जाना ही तो जिंदगी है न। :-अरे सीईओ साहब फिलोसॉफिकल मत होइए “जो पीछे छूट जाता है, वह यादें होती हैं और यादों को जिया जा सकता है, यादों में लौटा नहीं जा सकता है”।

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बड़े होने का ढ़ोंग



आज कल के लौंडे (लड़का-लड़की दोनो) गरमी का रोना रो रहे हैं। दुबक के एसी मे बैठे हैं और मन मे ड्रीम है ठरक प्राप्ति का। अरे कुछ नही होना भईया। कम्बल मुह पर डालो और गुरु रंधावा को लगाओ कान मे। 

वही ठरक है तुम्हारा। 

अक्सर ठरक का गलत मतलब निकालते हैं लोग। अरे मजाल है क्या साहब कि आप चार लोग के सामने बोल दो की आप ठरकी हो। अरे गजब हो जायेगा। कभी करके देख लेना। सोसाइटी सलमान खान और आप का हाल विवेक ओबेराय जैसा होगा। खैर दिमाग मे जो भी भसड़ राग चल रहा हो उसको दो पूर्ण विराम और सुनो, चप्पल उतार के कुर्सी पर बैठ जाओ। कहाँनी सुनाते हैं ठरक के शुरु होने की।

ठरक की शुरुआत वो वही 13-15 की उमर में होती है जब सब कुछ अपने कंट्रोल में करने का मन करने लगता है। जब रीनू का मन मम्मी की साड़ी और विनय का पापा के जूते पहनने को भर मुठ्ठी उफान मारने लगता है। तभी डाक्टर कलेक्टर बनने का ख्वाब दिखता है और साथ ही साथ बगल वाली मीरा का रेहान और उसका दिल नेहा को देखकर फिल्मी हो जाता है। बताता कोइ नही किसी से मगर सबकी फिलम मे स्वादानुसार ठरक होता है। बात अलग है कि लगभग वो सारी कहानियां अतीत के पेट मे फूलकर रह जाती हैं। 90 वाले जितने भी अब बड़े बूढ़े हो चुके हैं वो तो आज तक उन मोहल्लों की यादें नही भूले। दिल्ली गुड़गाव की बनावटी दुनिया मे अपना शहर और वो कोई खास घन्टा नही मिलना। खोज के देख लो। 

बहुत पहले उस दौर में भी जब गरमी ऐसे ही पड़ती थी और घर मे इंवर्टर भी नही होता था तब रातें अपनी-अपनी छतों पर बीतती थीं। छत को अच्छे से धो सुखाकर उसको ठंढ़ा करके अपनी-अपनी बिस्तरों पर रात गुजरती थी। पापा चाचा, मम्मी चाची और जितने भी ज्ञानी होते वो अपना अपना चरस एक दुसरे से बोते काटते नाक बजाने लगते। हम तो पैदाईशी लंठ थे तो नींद इतनी जल्दी आने से रही। वो सही था चांद तारों को गिनते हुए सो जाना।अरे इतना सन्नाटा क्यों है सज्जनों, ठरक तो अपनी छतों से अपने इश्क़ को ढ़ूढ़ कर उन्ही तारों के बीच पहुंचा देता था। बड़ा अच्छा था जब लगता था की बड़े होकर शादी करनी है तो इसी से। और बड़ा भी जल्दी ही होना था। सारी गलती बालाजी वालों की है, पूरा जनरेशन डाईलेमा मे जी रहा था। 

आखिर क्या है ठरक ? जब हर जंग मे जीत जाने का जज्बा हार जाने के डर को हरा देती है तभी एक नया पगलपन पैदा होता है। ठरक वही तो है। जिसे बक्से मे बंद करके अब बड़े होने का ढ़ोंग रच रहे हो। 

क्युं सही है ना?

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सोना ऐसे ही मिलता है



अगर हीमा दास दौड़ी नही होतीं तो सोना कहाँ से आता? बिटिया जल्दी में थी। उसे सोना चाहिये था। घर वाले देते मगर शादी करनी पड़ती उसके लिये। अब कोई और होता तो इंतजार करता लेकिन उसको तो तुरंत चाहिये था। एक और बात , शादी करके ही सोना पाया जा सकता है ये कौन बोला?

ठरक यहीं पर जन्म लेता है। एक विरोध के साथ, कई सवाल करते हुए।

यशराज स्टाईल में दुल्हन तो कोई पार्लर वाली बना देगी लेकिन वो चमक कब तक रहेगी? ये वो सोना नही है जो बाप अपनी गाढ़ी कमाई डुबाकर बिटिया के नाम करता है। हीमा दास के सोने को उन्होने खुद बनाया है। ये जो भी कुछ है उनका ही है। इज्जत भी इसी में है बालकों।

जो भी ये सोचकर बैठा हो कि एक दिन सोना मिलेगा वो सब समझ लो कि सोना ऐसे ही मिलता है। हौसला किसी ओर ले जा सकता है। लेकिन बस हौसला ही सब कुछ नहीं होता।
जब तक ठरक हाई लेवल का ना हो तब तक तो बस सब फीका ही होता है। बड़ी मासूमियत के साथ तुम ये सोच सकते हो कि चुनाव मुश्किल होता है मंजिलों का। एक अकेली जान क्या क्या करे भला। तो बस यहीं ठरक पैदा करने की जरुरत है? अब इसका मतलब ये भी नही है कि सबके खिलाफ यल्गार कर दो आनन फानन में। नहीं बच्चा बिल्कुल नहीं। वो बेवकूफी है।

जैसा चल रहा हो चलने दो सब कुछ वैसे ही सिवाय खुद के। बिना शोर किये उस शोर की तैयारी मे लग जाओ जो सब लोग तुम्हारे लिये करने वाले हैं।
मामला जो भी हो बात ठरक की ही है।

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अधूरी कहानी



शिकायतें बार बार करने पर भी जब कोई नही सुनता तब तकलीफ होती है। गैर जरुरी बात नही होती है किसी की उम्मीद टूटने की कहानी। उसे सुन लेना चाहिये। मगर जब इन बातों को लगातार बोलने पर भी कोई नही सुनता तब मौन हावी हो जाता है। अथाह दर्द के उस समंदर मे गोते लगाती आत्मा दुहाई देती है रहम की।

ज़रा गौर से सोचो तो पता चलेगा की हर मुकम्मल इंसान कहीं ना कहीं से बिखर रहा है। समेट पाता है या नही लेकिन अभिनय जरुर करता है। हंसता है, जोक सुनाता है, जी लेता है जिंदगी एक तरह से।क्या ऐसा तुम्हारे साथ भी होता है?

मन झुंझला जाता है। क्युं नही एक बार पूरी किताब हाँथ लग जाती। अपनी जिंदगी पूरी पता कर पाते लोग एक्मुश्त। यूं तो किश्तों मे पूरी कहानी सोच लेते हैं सोचने वाले मगर कहाँ पता चल पाता है सब कुछ।

वो मुलाकात जिसके सपने बुन रखे हैं पूरी होगी या नही?

क्या हम हासिल कर सकेंगे सुकून और मुकाम एक साथ?

ये जो शोर शराबा है फालतु का वो कभी थमेगा क्या?

दर बदर भटकती हैं असंख्य कहानियां उम्मीद के किनारों पर इसी तरह मौन, अपने अस्तित्व के इंतजार मे।

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